डॉ. सुरंगमा यादव
2885-भोर
1-भोर, हाइगा में प्रकाशित किया गया | टैग्स: डॉ.विनीता निखुर्पा
2884
विभा रश्मि
विभा रश्मि में प्रकाशित किया गया
2383
डॉ सुरंगमा यादव
1
जला बस्तियाँ
सांत्वना देने आईं
अब हस्तियाँ।
2
लीक पे अड़े
रह गए अब तक
खड़े के खड़े।
3
राम भरोसे
वृद्धाश्रम को जाते
नयना रोते।
4
कैसी हवाएँ
कोख से भी बेटियाँ
विदा कराएँ।
5
शब्दों के बाट
हर एक भाव को
सकें ना माप।
6
तराशे बिना
बन पाता है कहाँ
हीरा भी हीरा।
-0-
डॉ.सुरंगमा यादव में प्रकाशित किया गया
2382
कृष्णा वर्मा
1
देखके सदी
लिपटके कूल से
रोई है नदी।
2
दिल औ दिन
दोनों फिर जाते हैं
वक़्त के साथ।
3
कच्ची बस्ती से
गुज़रा जो बादल
रोया फूटके।
4
बसें तो कैसे
गरजें आज लोग
बादल जैसे।
5
भागते लोग
एक दिशा की ओर
पाते मंज़िल।
6
दुख बवाल
दिल के कोने लगा
मकड़जाल।
7
दीप बनके
गुज़ारी उम्र सारी
हिस्से अंधार।
8
न कर चेष्टा
बाहों की परिधि न
बँधें बादल।
9
माया का फेर
काग़ज़ के टुकड़े
ईमान ढेर।
10
खाली थी जेब
उपवास रखके
टाली है भूख।
11
भूखे पेट को
ऐबों- सा छिपाया है
कोट के पीछे।
12
भरें कुलाँचें
स्मृतियों के हिरण
मन निर्जन।
13
भीगे न कभी
नयन उनमें क्या
फूटेगी नेकी।
14
तुम्हारा साथ
उड़ाता था हवा में
था करामात।
15
टूट न जाए
कसते-कसते ही
सब्र की रस्सी।
16
हाँकते वही
जो भीतर से पोले
होते दोगले।
17
खुशी निढ़ाल
कीली पर घूमते
सिर्फ़ सवाल।
18
जला आग को
तिड़कते न चने
ठंडी बालू में।
19
सह चुनौती
मन की रेत पर
उगेगी दूब।
20
डूबे जो मन
स्मृतियों के कुण्ड में
घाव हों हरे।
21
घर के वन
तानों की गोलियाँ खा
टूटतीं साँसें।
22
जानूँ न कैसे
दर्द के चरम से
निचोडूँ खुशी।
23
न कर चेष्टा
बाहों की परिधि न
बँधें बादल।
-0
कृष्णा वर्मा में प्रकाशित किया गया
2381
प्रीति अग्रवाल
1.
मंद हवा को
किसने है सताया
आँधी बनाया?
2.
कैसे ये दिन
उलझा- सा है मन
तुम्हारे बिन।
3.
मुझको मिली
एक टुकड़ा धूप
मेरे हिस्से की!
4.
छलावा ही था
जो निज सुख सारे
तुम पे वारे।
5.
करूँ प्रतीक्षा
निसदिन मनाऊँ
खैर तुम्हारी।
6.
भूल न जाना
लौटकर आएगा
कर्म तुम्हारा।
7.
जला दिए थे
सब ख़त तुम्हारे
यादें, न जलीं!
8.
मीठे रिश्तों में
गलतफहमियाँ
बनती शूल।
9
जुबाँ पे ताला
नारी ने परिवार
ऐसे ही पाला!
10.
याद आ रहे
दो नयन तुम्हारे
मेघों- से कारे!
11.
आओ वक्त से
कुछ पल चुरा लें
वादे निभा लें।
12.
दूर या पास
तुम्हीं मेरी धरती
मेरा आकाश।
13.
पिया बावरी
दरस को तरसे
नैना बरसें।
14.
नींद माँगते
शहर के रईस
झोपड़ी वाली!
15.
लूडो की गोटी
बचपन की मौज
फिर से लौटी।
-0-
प्रीति अग्रवाल में प्रकाशित किया गया
2380
प्रीति अग्रवाल
1.
थिरकी बूँदें
नाच उठी प्रकृति
घुँघरू बाँधे!
2.
मायावी जग
अपने, परायों को
जानूँ तो कैसे?
3.
हटीला मन
सब जानना चाहे
दृश्य, अदृश्य!
4.
भूलूँ तो कैसे
हर दर्द दिलाता
याद तुम्हारी।
5.
मान भी जाओ
जो कहा, अनकहा
जान भी जाओ!!
6.
तुम जो रूठे
बोझिल मन लिये
जी न पाऊँगी।
7.
मन की बात
जतन कर हारी
मन में रही।
8.
शब्दों के बाण
अंतस को बींधते
घाव रिसते।
9.
सभी खोजते
प्रेम, अपनापन
सभी अकेले।
10
पढ़ लेगा वो
सखी मूँद रखियो
नैन झरोखे।
11
ये कौन झाँका
नयन- सरोवर
डूबा रे डूबा!
-0-
प्रीति अग्रवाल में प्रकाशित किया गया
2379
प्रियंका गुप्ता
1
टूटा था तारा
माँग ली दुआ कई
पूरी न हुई ।
2
सर्द हवाएँ
आँगन में यादों के
पत्ते गिराएँ ।
3
संग ले आए
बदलता मौसम
यादें पुरानी ।
4
बाँधे रहना
समाज ने जो दी हैं
सारी बेड़ियाँ ।
5
कसूरवार
बना देगा ज़माना
तोड़ी जो बेड़ी ।
6
सर्द मौसम
यादें लेकर आया
पतझर की ।
7
कैसे भुलाऊँ
किस्से वो अनकहे
दिल में दबे ।
8
लौट आऊँगी
दिल से पुकारना
दिखावा नहीं ।
9
किरचें चुभी
दिल के टूटने की
आवाज़ नहीं ।
10
बेचारा चाँद
तारों से घिरा हुआ
रहे अकेला ।
-0-
2-कपिल कुमार
1
तम में घूमें
रात का फ़ोटो खींचे
पटबिजना।
2
भोर के आते
जुगनू सोने चलें
दीया बुझाके।
3
जुगनू दौड़े
रातभर तम को
ठेंगा दिखाते।
4
जुगनू बने
अँधेरे के दुश्मन
रातभर युद्ध।
-0-
कपिल कुमार, प्रियंका गुप्ता में प्रकाशित किया गया
2378-झील-दर्पण में हाइकु – वैभव
– अनिता मण्डा
विदुषी पुष्पा मेहरा जी अपनी सतत रचनाशीलता से हिन्दी साहित्य की सेवा में पूर्ण मनोयोग से समर्पित हैं। अभी तक चार काव्य-संग्रह ( अपना राग, अनछुआ आकाश, रेशा-रेशा, आड़ी-तिरछी रेखाएँ), एक दोहा-संग्रह (तिनका-तिनका)व दो हाइकु-संग्रह ( सागर-मन, झील-दर्पण) वे रच चुकी हैं। साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, साक्षात्कार व समीक्षाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। साझा संकलनों में भी ताँका, चौका, हाइगा आदि पर लेखन कर चुकी हैं।
अन्य देशों की भाँति भारत में भी जापानी काव्य- विधाओं ने अच्छी पहचान बनाई है। विशेषकर हाइकु की लोकप्रियता किसी से छुपी नहीं है। जैसे गागर में सागर समाया रहता है वैसे ही छोटे से कलेवर के हाइकु में कविता का गहरा मर्म समाहित रहता है।
हाइकु का व्याकरण इतना सा है कि तीन पंक्तियों में मात्र सत्रह वर्ण होते हैं, पहली में पाँच, दूसरी में सात व तीसरी में पाँच वर्ण।
इतनी छोटी सी देह-यष्टि में भाव के प्राण जब समाते हैं तो हाइकु अपने प्रेमियों को सम्मोहित कर लेता है।
प्रारंभ में हाइकु में प्रकृति का चित्रण ही अधिक स्थान लेता रहा लेकिन बीते कुछ दशकों में हाइकु में हर प्रकार मनोभावों को सम्मिलित किया जा रहा है। यह हाइकु को विस्तार ही दे रहा है। हिन्दी भाषा हाइकु रचना के लिए अत्यंत उपयुक्त है क्योंकि हिन्दी में शब्द-भंडार प्रचुरता से उपलब्ध है।
पुष्पा जी का पहला हाइकु- संग्रह ‘सागर-मन’ (2015) पढ़ने का भी अवसर मिला था। अंतर्जाल पर भी उनकी हाइकु रचनाएं पढ़ने का सौभाग्य मिलता रहा है। नए संग्रह ‘झील-दर्पण’ के लिए भी उत्सुकता थी मन में और मैं आभारी हूँ कि यह मुझे प्राप्त हो गया।
पुष्पा जी का प्रकृति से गहन तादात्म्य तो है ही, अनुभूति की तीव्रता और जीवन दृष्टि की व्यापकता भी उनके पास है। शब्द-चयन को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतते भी वे दिखती हैं लेकिन इन सबके बीच जो बड़ी बात है वह यह है कि उनकी सहजता कहीं भी आहत नहीं होती है। नदी का सा शांत प्रवाह उनकी हाइकु रचनाओं में उपस्थित है।
इस संग्रह में 737 हाइकु हैं। संख्या की दृष्टि से भी यह काफी बड़ा संग्रह है। बावजूद इसके, कहीं भी दोहराव नहीं आया है। एक ही वस्तु को देखने के उनके पास कितने अलग-अलग दृष्टिकोण हैं।
सुविधा की दृष्टि से हाइकु पाँच खण्डों में विभाजित हैं- खण्ड एक- जीवन राग- प्रभात, शब्द,वसंत, यादें। खण्ड दो- जीवन सूत्र हमारे- गुरु, माँ, पिता, रिश्ते, धरती, हवा। खण्ड तीन- गर्मी, वर्षा, शीत, साँझ। खण्ड चार- झील, सागर, पर्वत। खण्ड पाँच- विविध रंग पाती।
पुस्तक का प्रारंभ प्रभात विषय से हुआ है। सुबह को होने वाली गतिविधियों को कई दृष्टियों से देखा है। भोर का दुल्हन की तरह आना, मुर्गे की बाँग से सोया हुआ गाँव जगना, कुहरे को हटा कर कलियों का खिलना, सूरज का नदी में नहाना, घुम्मकड़ी पर निकला सूरज आदि नज़ारे सवेरे-सवेरे दिखते हैं। सूरज जीवन का प्रतीक है, उसके स्वागत में भोर में दूर्वादल पर ओस हीरे की भांति चमक रही है।
आया सूरज/ दूर्वादलों ने साजे/ हीरक हार।
भोर ने दिशाओं को जगा दिया है। जागने में गाएँ, पखेरू सब शामिल हैं। एक सुंदर शब्द ‘निनाद’ का इतना अच्छा चयन है कि पढ़ते हुए ध्वनि की अनुभूति होती है।
मन्दिर खुले/निनाद घण्टियों का/ शून्य भरता।
पुष्पा जी का शब्द चयन इतनी मधुरता और कोमलता लिए है कि जहाँ कहीं प्रकृति का रम्य रूप प्रकट हुआ है आनन्द की सृष्टि हो रही है। धूप का धीरे से खेतों को छूना मानो उनमें प्राण डाल देना है।
मीठी छुअन/ धूप की मिली, खेत/ लहक उठे।
‘बतरस’ का वातावरण बिहारी की स्मृति दिला गया।
भोर की शोभा/ बतरस में बीती/ आ गई साँझ।
इसी प्रकार के एक से बढ़कर एक भोर के दृश्य शब्दों में समाए हैं। जिनसे गुजरते हुए मानस-पटल पर चित्र से उभर आते हैं। यह गहन अनुभूति और पूर्ण ठहराव से रचने का ही परिणाम है।
कुछ और भोर के हाइकु यहाँ उद्धृत करने से मैं स्वयं को नहीं रोक पा रही। भोर में किरणों का झील में झाँकना, प्रभात के क्रियाकलाप- दादी माँ का ईश को जगाना, डालों का सूर्याय नमः कहना आदि अद्भुत कल्पना हैं।
झील-दर्पण/ निहारती किरणें/ उसी में बैठ।
झूमा उद्यान/ डाल-डाल कहती/ सूर्याय नमः।
भोर को ठहर कर देखने वाला चित्त ही यह कह सकता है-
भोर से छूटा/ स्वर्ण दुशाला, गिरा/ धरा की गोद।
भोर सहेली/ लगा रही आलता/ नदी में बैठ।
एक- एक हाइकु अनुभव की स्याही से लिखा हुआ है, गौशाला में खली मिलाने की गंध भी विषय बन सकती है, इतनी व्यापकता कवि की अनुभूति में है।
मानवीकरण, उपमा आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग सब जगह है। भावों को मदिरा की उपमा कितनी अच्छी है।
मूक थे शब्द/ भावों की मदिरा पी/ हुए मुखर।
प्रकृति का इतना सुंदर चित्रण या तो रीतिकाल में मिलेगा या पन्त जी के यहाँ। मेरे विचार से पुष्पा जी को प्राकृतिक सौंदर्य के रचते हुए विशेष आनन्द आया है। ऋतुओं का बदलना एक सहज क्रिया है लेकिन इस व्यापार में धरती-और सूरज का स्थिति बदलना तो अस्तित्व रखता ही है। इसे इनकी साँठ-गाँठ कहना मधुरता तो पैदा करता ही है सामान्य विज्ञान की भी बात इसमें है।
बदली ऋतु/ धरती-सूरज की/ है साँठ-गाँठ।
साँझ होते समय धूप का दिन के साथ चले जाना स्वाभाविक है; लेकिन जब धूप को ‘नटिनी’ का विशेषण मिलता है तब अलग ही रस आता है।
बुझे अलाव/ दिन के साथ चली/ धूप नटिनी।
धूप की झाँकी विशेष विस्तार लिए हुए है; प्याऊ खुलना, पशुओं का तड़पना, तालाबों- जोहड़ों का सूखना, नदियों का सूखना, पखेरूओं का प्यास से निढाल होना, माटी की कुंडी का सूखे अधरों से जल पीना, धरती के तलवे जलना, धूप का मानवीकरण विविध रूपों में हुआ है-
धूप की छोरी/ गर्म सलाखें ले/ दागती फिरे।
टोना करती/ ये टोहनिन धूप/ आग फैलाती।
धरती बढ़ी/ ज्यों सूरज की ओर/ धूप भी बढ़ी।
गर्मी के बाद वर्षा के भी विविध रूप हैं, इंद्रधनुष को जनेऊ के रूप में देखना सचमुच बहुत सुंदर कल्पना है-
वर्षा ने डाला/ सतरंगा जनेऊ/ नभ के काँधे।
आधुनिक वर्षा ऋतु है यह भी आधुनिकताओं की तरह के ही रीति-रिवाजों का अनुसरण कर रही है-
बीज में भ्रूण/ देख करे श्रावणी/ बेबी शॉवर।
इसी तरह मैं एक शब्द की क्रिया पर मोहित हुए बिना नहीं रह पा रही -वह है ‘पछोरना’
हवा पछोरे/ निज अंग-अंग से/ हिम के कण।
राजा वसन्त के डर से कुहासे का भाग जाना, शाखों का हँसना, कामांध भौरों का मदांध होना, सरसों की बालियों का नाचना, हिम के पिघलने से नदियों का जोश से भागना, प्रवासी पाखियों का मंगल गाना आदि सैकड़ों चित्र इन हाइकु रचनाओं से उभर कर आ रहे हैं।
मार्च महीने में दिल्ली में हर कहीं यह सेमल का यह दृश्य दिख जाता है-
सेमल जागा/ गोद में लिये खड़ा/ शिशु कलियाँ।
महुआ की महक जब हवा में घुलती है तो लगता है-
मदिरा भरे/ महुओं को छूकर/ हवा है मस्त।
‘बधावा’ एक शब्द मात्र नहीं, बहुत बड़ी क्रिया है, पहले के समय में राजा- महाराजाओं के घर बधाइयाँ प्रेषित करने का काम चारण करते थे, उसी से यह चित्र उभरा है, भौंरों को चारण की उपमा कितनी सटीक है-
चारण भौंरे/ घूम-घूम काम को/ देते बधावा।
ऐसा ही एक सुंदर रूपक और देखिए-
फूलों के माथे/ दिठौना लगा बैठे/ श्यामल भ्रमर।
इसी तरह एक पतझड़ का दृश्य भी है-
उतार वस्त्र/ दिगम्बर हो खड़े/ साधक वृक्ष।
ऋतुओं के बदलने पर तो आप कई हाइकु पढ़ लेंगे; लेकिन हवाओं के बदलने पर इस हाइकु की सुंदरता देखिए-
पुरवा रूठी/ पछवा ये नटिनी/ चढ़ी आकाश।
चाँद सूरज के रिश्ते कई अलग- अलग रूपों में देखे होंगे; चाँद की कृतघ्नता देखनी हो तो यह देखिए-
कृतघ्न चाँद/ सूर्य जैसे दानी को/ मौक़ा पा ग्रसे।
एक हाइकु में जौहर और टेसू को इतना अलग रंग में देखा है कि मैं रीझ गई हूँ। प्रत्येक वस्तु तक पहुँचने का हमारा अलग ही अनुभव होता है। यह संयोग ही है कि मुझे अभी यानी कि मार्च के अंत में चितौड़ गढ़ जाने का अवसर बना। अरावली के जंगलों में, चितौड़ के आस-पास अभी बहुतायत में टेसू खिला हुआ था। चितौड़ से जौहर का रिश्ता तो सभी को पता ही है। तो यह हाइकु मेरे ऊपर बहुत सुंदरता से खुला-
दहका वन/ टेसू ने पूर्ण किया/ जौहर यज्ञ।
गुरु, माँ, पिता आदि रिश्तों पर तो लेखनी चलाई ही है, आभासी रिश्तों पर भी संज्ञान लिया है-
मन बावरा/ आभासी जगत से/ प्रीति गुनता।
बच्चों के माध्यम से परिवार के लोग भी बच्चे बन जाते हैं-
लौटा लाई है/ मुझमें वो शैशव/ द्विमासी पोती।
एक सहृदय साहित्यकार केवल सुंदरता नहीं देखता। उसे सामाजिक दायित्व भी उतने ही पुकारते हैं। समाज में व्याप्त विद्रूपताएं, विकास के नाम पर होता प्रकृति का विनाश उसकी चेतना को आहत करता है तो कलम सहज ही उसे दर्ज करती है।
काँपे पहाड़/ गायब खपरैलें/ उठी मंज़िलें।
बुलडोजर/ विकास खूँद रहा/ पर्वत गढ़।
जीवन-बीहड़ के विपुल क्ष्रेत्र में खट्टे-मीठे अनुभवों की सौगात तो सभी को मिलती ही है, कवि मन इसे सहेज कर शब्दों में पिरोने में माहिर होता है। संवेदना के सानिध्य से अनुभव फूल से खिलकर सौरभ बिखेरते हैं। कवि के अनुभव हमारे हृदय की वाणी बन जाते हैं-
शब्दों की आरी/ चुपचाप काटती/ रिश्तों के वन।
शब्दों को सौंप / मन का द्वंद मनु/ हो गया शांत।
एक हाइकु जो बहुत बड़ी जीवन की सीख भी दे रहा है, साक्षी भाव से कैसे जीवन जिया जाए यह भी बता रहा है इसमें ‘विदेह’ शब्द की भाव-व्यंजना कितनी अनूठी है-
काँटों के बीच/ विदेह बना खड़ा/ फूल गुलाब।
विविध रंग पाती- खण्ड में से एक हाइकु यहाँ रखती हूँ, आजकल सोशल मीडिया के झूठ फैलाव कार्यक्रम की एक झलक मुझे इसमें दिखाई दी-
थोड़ी सी गल्प/ बन गई दावाग्नि/ सिर न पैर।
दिन का उजाला दूध है और रात एक बिल्ली है जो कि दूध को पी गई, जिससे की रात काली हो गई- सत्रह वर्ण में इतनी बड़ी कल्पना को ढालना वाक़ई में बहुत बड़ी साधना है-
दिन का दूध/ रात बिल्ली पी गई/ फैला अँधेरा।
अपने को आहत करने वालों को भी अपने अच्छे स्वभाववश कुछ अच्छा ही देना- चन्दन से सीख सकते हैं-
भीगा सा इत्र/ कटते चन्दन ने/ आरे को सौंपा।
डॉ. सुरंगमा यादव जी ने भूमिका में सत्य ही लिखा है- “कवयित्री का शिल्प-सौष्ठव, शब्द- चयन, काव्यात्मकता, भावाभिव्यक्ति का नैसर्गिक प्रवाह हाइकु के निर्बाध सम्प्रेषण की सामर्थ्य रखता है।”
विविधता से परिपूर्ण इस संग्रह को पढ़कर मुझे बहुत आनन्द मिला। हाइकु प्रेमियों के लिए निश्चित ही यह अनूठी सौगात सिद्ध होगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं पुष्पा जी के लिए कि वे स्वस्थ रहें, रचनात्मक रहें, अपना आशीर्वाद रचनाओं के रूप में हम पाठकों तक सम्प्रेषित करती रहें।
-0- झील दर्पण (हाइकु-संग्रह) : पुष्पा मेहरा मूल्य रुपये 200/- , पृष्ठ:120, प्रकाशक –शब्दांकुर प्रकाशन,-2-41, JJ कॉलोनी, सेक्टर 4, मदनगीर, नई दिल्ली, दिल्ली 110062
अनिता मंडा में प्रकाशित किया गया
2377
1-विभा रश्मि
-0-
2-कपिल कुमार
1
गेहूँ ज्यों पका
इंद्रधनुषी रंग
धूमिल पड़ा।
2
गेहूँ ज्यों पका
खेतों के सिर चढ़ा
स्वर्णिम रंग।
3
गेहूँ की बाली
छोड़के हरियाली
स्वर्ण ओढ़ती।
-0-
कपिल कुमार, विभा रश्मि में प्रकाशित किया गया
2376-वसन्त
कृष्णा वर्मा
1
उगे गुलाब
यादों के वसंत ने
लगा दी आग।
2
वासंती फ़िज़ा
रँग रही गुलाबी
आँखों के डोरे।
3
जीवन- भ्रम
कभी है पतझड़
कभी वसंत।
4
मिला धरा को
ऋतु का प्रेम-पत्र
गंध सर्वत्र।
5
खुश कुठले
भरेगा अनाज औ
जिएगा हास।
6
फोड़के काठ
पछाड़े उदासियाँ
वसंतराज।
7
पौन वासंती
सिरजे इच्छाओं का
कुँआरा वृक्ष।
8
लिखे वसंत
काल के कपाल पे
केसरी रंग।
9
क़ुदरत के
क़दमों की आवाज़
शिशिरकाल।
10
डाली कमाल
तन बिंधा काँटों से
जन्मे गुलाब।
11
चैती हवाएँ
स्मृति तहख़ानों की
कुंडी बजाएँ।
12
भोर नहाई
झील के हमाम में
घुली ललाई।
13
उड़े पराग
ऋतु की माँग भर
गाए सुहाग।
14
काढ़ती अम्मा
रिश्तों की दुसूती पे
फूल-पत्तियाँ।
15
चैत ने छुआ
दुबलाया- सा नीम
हो गया घना।
16
वृक्षों के गाँव
चिड़ियों का मेला है
जन्में खुशियाँ।
17
तू बारिश की
किनमिन रे प्रिय
मै हूँ पतंग।
18
छुआ यादों ने
जलकुम्भियों -सी
खिल उठी मैं।
19
बगैर ब्रश
रँग डाले ऋतु ने
गाछ-लताएँ।
-0-
कृष्णा वर्मा में प्रकाशित किया गया
श्रेणी
- 00-अप्रैल-17-हाइकु विमर्श
- 001-अ-परिचय
- 001-अप्रैल 10, हाइकु विमर्श
- 001-ई-पुस्तकें
- 001-नेवा हाइकु[ नेपाल ]
- 001-वैश्विक हाइकु-संग्रह,
- 001-सरस्वती सुमन -हाइकु -विशेषांक
- 001-हाइफन हाइकु विशेषांक -2013
- 002-हाइफन हाइकु विशेषांक-2018
- 003-अविराम साहित्यिकी हाइकु-विशेषांक
- 1-अकेलापन
- 1-आँख
- 1-आकाश
- 1-आलेख और विचार
- 1-उपवन
- 1-गर्मी
- 1-गाँव
- 1-गुरुपरब
- 1-चाँद
- 1-चाय
- 1-जुगलबन्दी
- 1-झील
- 1-दीपोत्सव
- 1-नदी
- 1-पर्यावरण-हाइकु
- 1-पर्वत
- 1-पिता
- 1-प्रतीक्षा
- 1-प्राण
- 1-प्रेम
- 1-भाषान्तर
- 1-भोर
- 1-महत्त्वपूर्ण संग्रह
- 1-मृत्यु
- 1-मेरी पसन्द
- 1-यादें
- 1-रंग-पर्व
- 1-रक्षाबन्धन
- 1-रात्रि
- 1-वर्ष गाँठ
- 1-वर्षा
- 1-वसन्त
- 1-संकलन
- 1-समीक्षायण
- 1-सर्दी के हाइकु [ विशेषांक ]
- 1-साँझ
- 1-सागर
- 1-हाइकु -संग्रह-भूमिका तथा अन्तर्वस्तु
- 1-होली
- 1.2 हाइकु -रत्न सम्मान
- 2014 का मूल्यांकन
- 85-हिन्दी-चेतना-हाइकु विशेषांक
- अंजलि
- अंजु गुप्ता
- अंजु घरबरन
- अंजु घरभरन
- अंश पटेल
- अंशु विनोद गुप्ता
- अंशु सिंह
- अंशु हर्ष
- अखिलेश कुमार
- अजय चरणं
- अजित महाडकर
- अतुल रॉय
- अनंत आलोक
- अनन्या भारद्वाज
- अनामिका शाक्य
- अनिता मंडा
- अनिता ललित
- अनिमा दास
- अनिरुद्ध प्रसाद 'विमल'
- अनिरुद्ध सिंह सेंगर
- अनिल कुमार मिश्र
- अनिशा वी सिंह
- अनीता सैनी ‘दीप्ति’
- अनुपमा अनुश्री
- अनुपमा त्रिपाठी
- अनुराधा गुगनानी
- अनूप भार्गव
- अन्वीक्षा श्रीवास्तव
- अभिनंदन गोपाल
- अभिषेक जैन
- अमन चाँदपुरी
- अमर साहनी
- अमित अग्रवाल
- अमिता
- अमितेन्द्र नाथ’अमित’
- अमिय मोहिले
- अमृता मंडलोई पोटा
- अरुण कुमार प्रसाद
- अरुण कुमार रुहेला
- अरुणा दुबलिश
- अर्चना माथुर
- अर्चना राय
- अर्जुन सिंह नेगी
- अवतंस रजनीश
- अवधी
- अवधी हाइकु
- अवधेश तिवारी 'भावुक '
- अशोक 'आनन'
- अशोक आनन
- अशोक कुंगवानी-
- अशोक गर्ग
- अशोक दर्द
- अशोक प्रियदर्शी
- अशोक बाबू माहौर
- अशोक शर्मा ‘भारती’
- अशोक शर्मा भारती
- अशोक सलूजा
- आदित्य प्रचण्डिया
- आदित्य प्रसाद सिंह
- आनन्द विश्वास
- आभा पूर्वे
- आभा सिंह
- आभा सिन्हा
- आलोकेश्वर चबडाल
- आशा प्रभाष
- इदराक खान
- इन्दु
- इन्दु गुप्ता
- इन्दु रवि सिंह
- इन्द्र माली
- इला कुलकर्णी
- ईशा ठाकुर
- ईशा रोहतगी
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- उमा घिल्डियाल
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