Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | फ़रवरी 4, 2023

2314-आया वसंत

 डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

1.
मातु शारदे
लोक प्रज्ञावान हो
यही वर दे।
2
सरसोंउत्फुल्ल धरा
नाच रही सरसों
स्वर्ण बिखरा।
3.
लता नवेली
तरु- तन लिपटी
आया वसंत।
4.
खिलखिलाई
सोनजुही की कली
उड़ी तितली
5.
खुश्बू का न्यौता
दे आई गली-गली
हवा बावली।
6.
कलिका खिली
भ्रमरों के मन में
मिश्री- सी घुली।
7.
भँवरे बाँचें
मधुऋतु की पाती
कलियाँ नाचें।
8.
तुम्हें छू लिया
ज्यादा कुछ महकी
हवा वसंती।
9.
मन अधीर
जगा दी वसंत ने
सोई थी पीर।
10.
हारा शिशिर
राज ऋतुराज का
हवा मदिर।

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | फ़रवरी 3, 2023

2313

डॉ.सुरंगमा यादव 

23-सुरंगमा यादव1

उठी उमंग
चहचहाने लगे
भाव- विहंग।
2
सुखद अंत
पतझर दे जाता
रम्य वसंत।
3
पी मकरंद
भ्रमर रच रहा
प्रणय- छंद।
4
प्रेम- कविता

वसंत रचयिता

कुहू गायिका।
5
कहीं प्रार्थना
कहीं प्रेम प्रतीक
सुमन बना।
6
भोर बाँटती
फूलों का उपहार-
किरन- हार!
7
स्मृति- गुलाब
आज भी लगता है
अभी खिला है।
8
भाव विह्वल
सुधियाँ जब आईं
बहा काजल।

-0-

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | फ़रवरी 1, 2023

2312-आए तूफ़ान

 रश्मि विभा त्रिपाठी
7-RASHMI VIBHA TRIPATHI1
प्यार का सिला
हमें किसी से कब
अच्छा ही मिला!
2
पड़ा हलका
प्यार का रंग जब
दर्द छलका।
3
जहाँ सहेजा!
उसने चाक किया
वही कलेजा।
4
वर्चुअल है!
फेसबुकिया प्यार
एक छल है।
5
जान पे खेले
फिर भी इल्ज़ाम ही
हमने झेले।
6
खलबली है
किधर को दुनिया
अब चली है?
7
बन्द झरोखे
घर, बाहर देखो
कितने धोखे!
8
अब कहूँगी
किसी से क्या, हो गई 
दुनिया गूँगी।
9
समझौतों पे!
दुख होता है बड़ा
ऐसी मौतों पे।
10
बताते रहे
जो अपना, वे ही तो
सताते रहे।
11
नहीं जज़्बाती
आजकल आदमी
है खुराफाती!
12
भरमार है
अपनों की हालांकि,
कहाँ प्यार है?
13
अपना सगा
समझा जिसको भी
दे गया दगा!
14
आए तूफान
तो रिश्ते गुमशुदा
इसी दौरान।
15
फिर न लौटा!
शायद पहने था
वह मुखौटा?
16
अर्थी न हटी
पहले ही हवेली
हिस्सों में बँटी।
17
कितनी कला
अपने हँसकर
कसते गला।
18
बुरे मंसूबे!
हमारे अपनों के
हमें ले डूबे।
19
पैसा ही पैसा!
प्यार में चल पड़ा
व्यापार कैसा?
20
है विरह का
सावन आँखों में तो,
जिया दहका!
21
करते भूल!
प्रेम के राज में जो
चाहते रूल।
22
जिसे भरोसा
जताया उम्र भर
उसी ने कोसा!
23
छिले तलवे
हमराह के तब
देखे जलवे!
24
जब परखा
तब- तब ताख पे
रिश्तों ने रखा!
25
पाकर हक
प्यार मरता नहीं
आखिर तक!
26
कैसी ये बस्ती
बचाना मुश्किल है
अपनी हस्ती!
27
अब तो कहीं
प्यार की पवित्रता
दिखती नहीं।
28
करो दुआएँ
विछोह के मौसम
कभी न आएँ।
29
स्वार्थ ही मात्र
हुआ धर्म इंसाँ का
घ्रणा का पात्र!
30
कहीं कमी है!
रिश्तों के आइने पे
धूल जमी है।

31

 गले लगाना

जी उठूँगी फिर से

जल्दी आ जाना!

32

 गले मिलके

तुम अरमाँ बने

टूटे दिल के।

33

 तुम्हारी बातें

तुम क्या जानो देतीं

क्या- क्या सौगातें!

34

दिया सहारा

बुढ़ापे की लाठी है

प्यार तुम्हारा

-0-

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | जनवरी 23, 2023

2310

सुरभि डागर 

सुरभि डागर -मेन

1

कोयल कूक

लगाए हो बसंत

झूमके आए।

2

सँभलो नर

प्रकृति की गुहार 

डालो संस्कार ।

3

प्रकृति पति

शिव तारणहारा

सबसे प्यारा।

4

जल अमोल

एक बूँद भी अब 

न हो बेकार ।

स्लेटी साँज्ह

5

स्लेटी  शाम  में

अम्बर से ताकता

मुझको चाँद ।

 6

स्वर्णिम साँझ 

किरणे धरा पर

करें शृंगार ।

7

इन्द्रधनुष

सतरगी सपने

हिंडो़ला झूलें ।

8

प्रदूषण में

साँसों का अभाव है 

जीना दूभर

9

बगुला बना 

मन हंस को काहे

आस लगाए।

10.

रंगबिरंगी

ओढ़ चूनर धरा 

मन्द मुस्काए।

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | जनवरी 20, 2023

2311-आऊँ जो दुनिया में

– रश्मि विभा त्रिपाठी

1

करना प्यार

आऊँ जो दुनिया में

अगली बार।

2

मुझपे आई

आफत तो तुम्हीं ने

दुआ मनाई।

3

साथ हो खड़े

मेरे लिए तुम तो

सबसे बड़े!

4

तुम हो पास

अब कुछ भी नहीं

मुझको आस।

5

अब आया है

मेरा अच्छा समय

तुम्हें पाया है।

6

मुझको वह

मिला तबसे मेरे

बदले ग्रह।

7

उठी है हूक

क्या यादों का संदूक

तूने खोला है!

8

पुलकित मैं?

तुम सोचते सदा

मेरे हित में।

9

तुम्हीं ने ताना

मेरे लिए दुआ का

ये शामियाना।

10

प्यार की धुन

तुमने छेड़ दी, मिटे

अपशकुन।

11

पीड़ा पड़ी है

प्रेम की परिभाषा

तूने गढ़ी है।

-0-

कपिल कुमार

1.

शहरी लोग

गाँव छोड़के भूले

मिट्टी के चूल्हे।

2.

बिटोड़े खड़े

गाँव को घेरें ऐसे

प्रहरी जैसे।

3.

तारों की शादी

मेघ करें मुनादी

भू का भी न्यौता।

4.

रात में दूब

सोई, ओस ओढ़के

प्रभा छोड़के।

5.

कैसी ये रीत?

पलस्तर में गुम

मिट्टी की भीत।

6.

सूखा पोखर

गाँव के बीचोंबीच

खाता ठोकर।

-0-

विभय कुमार ‘दीपक’

वन

1

वनों की छटा

छाई हुई हरसू

पत्तों की घटा।

2

वृक्षों के आगे

हम सभी इंसान

लगते बौने।

3

जंगल वाले

सन्नाटे में भी होती

एक आवाज़ ।

4

हिरन देखे

छलांगे थे मारते

शोभा निराली ।

5

पत्थरों के बीच

कल-कल की ध्वनि

बहती नदी ।

6

वन-प्रांतर

वस्त्र हैं धरती के

लाज ढकते।

7

पेड़ों के बीच

सरसराती हवा

डराती तो है ।

8

वन में देखे

दीपक जुगनू के

जलते हुए ।

-0-

बी – 119, मेंहदौरी कालोनी

तेलियरगंज , प्रयागराज ( उ. प्र. )- 211004

Vibhai Kumar <vibhai.kumar26@gmail.com>

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | जनवरी 17, 2023

2309

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | जनवरी 10, 2023

2308

भीकम सिंह 

1

हर गाँव में 

लेके बैठी रूढ़ियाँ 

बड़ी- बूढ़ियाँ  ।

2

गाँवों में फैला 

अंधविश्वासी जाल

जी का जंजाल ।

3

गाँवों से आएँ

खुशबू  जैसी बसी 

परंपराएँ  ।

4

रूढ़ि बाँधता 

सुबक रहा गाँव 

आँखे मूँदता  ।

5

उगे खेतों में 

लेके बीजों की आड़

घृणा-से झाड़  ।

6

खो गए बैल 

समय के खेत में 

गाँव की गैल  ।

7

चंद चिराग

गाँवों में ज्यों ढूँढते

तम के राज ।

8

मेड़ तकिया 

पुआल बिछाकर 

लेटी धनिया  ।

9

उठा खतौनी 

बेच दी औनी- पौनी 

शक्ल ज्यों रोनी ।

10

धुँध में दिखी 

ज्यों कस्तूरी हिरण

सूर्य-किरण  ।

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | नवम्बर 22, 2022

2307

रश्मि विभा त्रिपाठी 
1
7-RASHMI VIBHA TRIPATHIदिलों का मेल!
अब तो बन गया,
घिनौना खेल।
2
कैसी बनी है?
आजकल दुनिया
सनसनी है।
3
ढूँढ लो एक,
इस दौर में इंसाँ,
दिल का नेक!
4
चल लो दाँव!
पर नहीं होते हैं
झूठ के पाँव।
5
किस कमी से?
रिश्ते टूट जाते हैं
बेहरमी से!
6
इंसाँ तौलता
प्यार पैसे से आज
ख़ून खौलता!
7
कैसा मंज़र
लोग गले लगते
लिए ख़ंजर!
8
मेरा ही घर!
हर पल मगर
सताता डर।
9
यही दस्तूर!
जिनके जख़्म सिंए
वे ही नासूर।
10
तोड़के घर
इन्सान बन गया
खुद पत्थर।
11
हर शहर
अब तो प्यार के ही
हैं सौदागर?
12
बढ़ी मुश्किल!
जिसको दिल दिया
वही क़ातिल।
13
न हो पत्थर!
जिन्दगी तो सबकी,
काँच का घर।
14
क्या इत्तेफ़ाक?
जो औरों को बनाएँ
वे ही हों ख़ाक!
15
बड़ा गजब
सच को डाँट, झूठे
पाते अदब!
16
प्रेम की शुद्धि
फिर नहीं हो पाई
जुड़ी थी बुद्धि!
17
किसने थामा
नेह का कच्चा तागा
सब हैं गामा।
18
ज्यादा या थोड़ा!
दर्द देता रहेगा
रिश्तों का फोड़ा।
19
स्वार्थ ने सोखा
समंदर प्यार का
धोखा ही धोखा।
20
मुहब्बत है?
जी नहीं, बस एक
जरूरत है।
-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | नवम्बर 14, 2022

2306

अनुभूतियों की लहरों से मचलता हुआ मन

रमेश कुमार सोनी

            हिन्दी साहित्य में अब हाइकु का नभ विस्तृत हो चुका है इसने देश की सीमाओं को लाँघते हुए अपनी एक अनोखी दुनिया बनाई है, लहरों क ेमन मेंजिसके पाठकों के समयदान और लेखकों के अकूत श्रम ने हिंदी कविता को सशक्त बनाया है। वर्तमान में हाइकु विधा की अनेक पुस्तकें (विविध बोली-भाषाओं में भी),शोध-कार्य, समीक्षा,पत्रिकाओं के विशेषांक और हाइकुकोश…जैसे कई साहित्य प्रकाशित हो चुके हैं। इन दिनों हाइकु पर परिचर्चा-गोष्ठियाँ,कार्यशालाओं के आयोजन के साथ ही इस पर विविध प्रयोग जारी है।  हिंदी हाइकु का डिजिटल प्लेटफार्म इसका प्रमुख विस्तारक एवं मार्गदर्शक है जिसके संपादक द्वय- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं हरदीप कौर संधु हैं। इन दिनों हाइकुकारों के रचनात्मक अवदान पर विशद विमर्श एवं शोध की आवश्यकता है

        लहरों के मन में- सुदर्शन रत्नाकर का तीसरा हाइकु- संग्रह है  इसमें  कुल 763 हाइकु  इन उपशीर्षकों के अंतर्गत हैं-1 प्रकृति के संग, 2 रिश्तों के रुप, 3 विविध रंग।  आपके इन हाइकु में विशिष्टता का आकर्षण और काव्य की अद्भुत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं जिसमें परिपक्वता है। प्रकृति की पंच महाभूत शक्तियों में से एक है -जल।  समुद्र में संसाधनों का अकूत भंडार है।  यह हमें प्रकृति को पास से देखने /निहारने का न्यौता देता है सबकी अपनी-अपनी दृष्टि होती है लेकिन साहित्यकारों के पास उस अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की विविध विधाएँ भी प्रचलित हैं । हिंदी हाइकु इन सबसे जुदा है; क्योंकि इसकी लघुता में इसकी विशालता और व्यापकता के दर्शन होते हैं।   

     हिंदी हाइकु ने प्रकृति के संग ठुमकते हुए चलना सीखा है इसलिए हाइकु में प्रकृति मुख्य रुप से विद्यमान रहती है। प्रकृति के अनेक रूप हैं, जिन्हें जो अनुभूत हो जाता है वही दृश्य रचनात्मकता की उँगली थामे, हाइकु का चोला पहने साहित्य की पंगत में बैठ जाता है। आइए इन हाइकु में भोर के सौन्दर्य को निहारें जो कभी झाँझर छनकाती नवेली दुल्हन है तो कभी ये रश्मि रथ पर सवार होकर आते हैं और ओस की मोतियों से कोहरे की चादर बुनते हैं-

भोर नवेली/पहन के निकली/साड़ी उजली।

प्राची दिशा से/झाँझर छनकाती/उषा निकली।

उतरीं नीचे/रथ पर सवार/रवि रश्मियाँ।

ओस के मोती/कोहरे की चादर/गढ़े चितेरा।  

     रात के दृश्यों को मन के कैमरे में कुछ इस तरह कैद किया है की साहित्य यहाँ हाइकु रूपी तारों से अलंकृत सा लगता है। रात का सौन्दर्य चाँद और चाँदनी के बिना अधूरा है और इसे अनुभूत कर इस तरह प्रकट करना पाठकों को आकर्षित करता है-

दूध कटोरा/हाथ लिये घूमती/रात चाँदनी।

पूस की रात/कोई नहीं बाहर/चाँद अकेला।

तारों के गुच्छे/झूमर ज्यों लटके/नील नभ में।

     वर्षा,बाढ़,नदी के दृश्यों को लोकमंगल की भावना से रचनात्मकता को शब्द देने हाइकु का लिबास बखूबी पहनाया है इस हाइकुकार ने; इससे रचना की सार्थकता सिद्ध होती है। इसे पढ़ते हुए कभी मन भीग जाता है तो कभी काँपने लगता है कभी यह नदी किनारे मंत्रोच्चारण भी सुनने लगता है-

वर्षा की बूँदें/बालकनी में बैठ/भीगते मन।

बाढ़ का पानी/लील जाता जिंदगी/काँपता मन।

मंत्रोच्चारण/गूँजे नदी किनारे/हैं धरोहर।

      धूप के कुछ अनोखे रंग इन हाइकु में यहाँ बिखरे पड़े हैं जिन्हें पाठकों तक पहुँचाने का बीड़ा हाइकुकार ने बखूबी उठाया है। नाजुक धूप,पीले धूप और चाँदी जैसी धूप को यहाँ हाइकु ने कुछ तरह से शब्दांकित किया है-

लाल पलाश/पीले अमलतास/धूप में पगे।

नाजुक धूप/सर्दी के मौसम में/शर्माती आए।

उतरी धूप/आज मेरे अँगना/चाँदी बिखरी।

      शीत महारानी के विविध रुप यहाँ देखने को मिलेंगे जो आपको अपने आपसे सीधे ही जोड़ते हैं और ले चलते हैं हिम पर्वतों की मौन साधना से अहल्या सी प्रतीक्षारत झील की यात्रा पर वाकई ये हाइकु का ही रंग है जो हम पाठकों तक शीत भेजने में समर्थ हुई है- 

बिन शृंगार/अलसाई सी उतरी/धूप सर्दी की।

हिमाच्छादित/मौन खड़े पर्वत/ज्यों तप लीन।

बर्फ है जमी/अहल्या-सी हो गई/सर्दी में झील।

      पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन की महती जिम्मेदारी कहीं न कहीं हम सबकी है। हमने इसे अपनी व्यस्तताओं के पीछे छुपा रखा है लेकिन वक्त पर मौसम की बेरुखी उजागर हो ही जाते हैं, ये हाइकु इसी भाव को व्यक्त कर रहे हैं- 

हमने ही तो/काटे हैं बरगद/धूप क्या करे।

उड़े जो पंछी/कर रहा प्रतीक्षा/ठूँठ अकेला।

      मानवता की जीवन्तता का मूल रिश्तों में अन्तर्निहित है। इन रिश्तों में माँ मुख्य धुरी होती है जिसके इर्दगिर्द सभी रिश्तों का तानाबाना जुड़ा होता है। बेटियों को जहाँ दो परिवार का साथ मिलता है, वहीं पिता रिश्तों में बरगद की छाँव से हैं और प्रियतम की सात जनम के साथ जुड़े रिश्ते खुशियों की गुल्लक के जैसे हैं। रिश्तों में विश्वास और समर्पण की चाशनी होती है जिसे ये हाइकु यहाँ प्रकट कर रहे हैं-

सहला गया/झोंका ठंडी हवा का/ज्यों स्पर्श माँ का।

मेरे अँगना/चहकती चिड़िया/मेरी बिटिया।

पिता का साथ/खुशियों की गुल्लक/टूटी बिखरी।

प्रिय का संग/डोर बँधी पतंग/उड़ती जाए।

      इन दिनों रिश्तों को सँभालने का युग है क्योंकि एकल परिवारों की बढ़ती चाहत ने कई रिश्तों को लुप्त किया है।  महानगरीय और पाश्चात्य की जीवनशैली ने हमारे समाज के साथ-साथ हमारे घरेलू रिश्तों को भी खोखला किया है।  रिश्तों में जहाँ समर्पण होना चाहिए वहाँ अवसरों पर बदला  भुनाने,नीचा दिखाने जैसी ओछी और छोटी सोच जाने कहाँ से प्रवेश कर गई है।  अपेक्षाओं से उपजी उपेक्षा के दंश से रिश्तों में पड़ती गाँठें असहनीय पीड़ा देती हैं-

रिश्तों का बोझ/पड़ने लगा भारी/दुनिया न्यारी।

सिमट गए/हैं,नाते-रिश्ते सारे/मोबाइल में।

       स्मृतियाँ अपने भूतकाल की धरोहर होती हैं जिनके सहारे हम वर्तमान की सीढ़ी चढ़ते हैं, इनमें बाल्यकाल की यादों को युवावस्था जब प्रेम का चोला पहनाता है तब यह जीवन को वास्तव में जिंदगी देता है। यहाँ हाइकुकार के मन में बसी स्मृतियों की पोटली को बिखेरूँ कहाँ का असमंजस है; लेकिन साहित्य का चमत्कार इसे गूँथता है किसी जीवंत गुलदस्ते के जैसे-

स्वप्न हो गई/रहट की आवाज़/मुर्गे की बाँग।

कीकली खेल/चरखे की घूमर/पीछे हैं छूटे।

तीज त्यौहार/सबके साँझे होते/गाँव के मेले।

धुआँसी आँखें/माँ परोसती रोटी/मिट्टी के चूल्हे।

       इस जीवन के कई रंग हैं जो वक्त के पहिए पर सवार होकर दुःख और सुख के गाँव की यात्रा पर जाते हैं जहाँ हमें बरबस ही दिख जाता है-बालश्रम, भूख, वृद्धाश्रम, अट्टालिकाओं सा घोंसला, मोबाइल की माया के साथ अपने आपको सबकुछ समझने की बड़ी भूल करते इंसानी कठपुतलियों को साधते इस जगत मदारी को रेखांकित करता यह हाइकु देखिए-

दिखाता वह/देख रही दुनिया/खेल मदारी।

कंचन काया/झूठी जग की माया/क्यों भरमाया।

     फुटपाथ,लूट,झूठ,भूख, विकास से विनाश जैसे विषय अब हाइकु की जद में आने लगे हैं आधुनिकता और बाजारीकरण के इस युग को आईना दिखाते हुए ये हाइकु पुष्ट हैं-

अजनबी से/रह रहे हैं लोग/ऊँचे मकान।

बाँधती रही/जीवनभर घड़ी/बँधा न वक्त।

क्षत-विक्षत/नगर की है काया/लोग हैं शांत।

सूनी गलियाँ/पहरे पर चोर/जागते रहो।

     आधुनिक दुनिया के तथाकथित संचालनकर्ता राजनीति की लपलपाती जीभ जब सम्पूर्ण मानवता को निगलने को तैयार हो ऐसे समय में आश्वासन की झूठी परंपरा को पोषित करते कुछ सफेदपोश जो इस लोकतंत्र के लिए जब भस्मासुर साबित होने को हों तब हाइकु इसे अपने आगोश में समेटकर कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करता है-

खोखले नारे/सूखे पत्तों का शोर/चरमराते।

टूटता मन/देख राजनीति की/वेश्या प्रवृत्ति।

     मज़बूरियाँ, इस जीवन का एक पड़ाव हैं, जहाँ वक्त का आपात्काल लगा रहता है ऐसे दुधर्ष दृश्यों के प्रकटीकरण में हाइकु पीछे नहीं है- 

सजा रखी है/सीने पर दुकान/पेट के लिए।

     ‘लहरों के मन में’- एक पठनीय और संग्रहणीय हाइकु संग्रह है जो नव हाइकुकारों को भी मार्गदर्शन करेगा।  हिंदी साहित्य को आपने अपने इस योगदान से कृतार्थ किया है। इस कृति में आपके अंतस की कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का गुंजायमान है जो हाइकु विधा को पुष्ट कर रहा है।

इस अद्भुत् संग्रह के लिए ‘सुदर्शन रत्नाकर’ जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।

.लहरों के मन में-हाइकु संग्रह, सुदर्शन रत्नाकर,अयन प्रकाशन-दिल्ली, वर्ष: 2022, मूल्य-360/- पृष्ठ-144

ISBN:978-93-94221-27-7, कवर पेज-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Posted by: हरदीप कौर संधु | नवम्बर 11, 2022

2305

डॉ.कविता भट्ट

डॉ कविता भट्ट (1)

1

उन्मुक्त रहो
जीवन- पहाड़ी पर
समीर बहो।
2
तेरी ये दृष्टि
रचती प्रतिपल
नवीन सृष्टि।
3
हँसता गाता
आया ज्यों मधुमास
मुख ये पास।
 -0-

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