Posted by: हरदीप कौर संधु | मई 5, 2023

2331

डॉ.सुरंगमा यादव

23-सुरंगमा यादव1
श्रमिक जन
बुनते हैं रेशम
नंगा बदन।
2
श्रम का लेखा
लाँघी न गई हाय!
गरीबी रेखा।
3
नया है दौर
प्रेम- रेत का टीला
बदले ठौर।
4
थम जाती है
मन की भटकन
ग्रंथों के संग।
5
सोशल हम
सोशल मीडिया पे
संबंध गुम।
6
तराश तो लें
पत्थरों में जज़्बात
भरें तो कैसे!
7
मिलते रोड़े
नदी को पग-पग
गति न छोड़े।
8
कोश में ढूँढूँ
सुंदरतम शब्द
‘माँ’ पे ठहरूँ।
9
हे मात-पिता!
हम हैं तुम्हारा ही
रूप विस्तार।
10
बेमेल ब्याह
ठूँठ संग कोपल
करे निर्वाह।
11
ताप-ओढ़नी
झुलसती धरती
जेठ की तल्खी।
12
जेठ-अलाव
माचिस न ईंधन
मारे लपटें।
13
अहल्या तरी
शिला में अग्नि बन
व्यथाएँ शेष।
14
रिश्तों में दूरी
नज़दीकियाँ बढ़ी
आनॅलाइन ।

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | अप्रैल 29, 2023

2330

कृष्णा वर्मा 

1

बो गया वह 

अपने अहसास 

कोरे मन पे। 

2

छीन ले गया 

झट से अधरों का 

वो रीतापन। 

3

मथ गया वो 

प्रेम की मथनी से 

दिल की चाटी। 

4

सखी पी बिन 

अँगूरी गिन-गिन 

बीते हैं दिन।

5

बेबस मन 

सुगंध की रागिनी 

गाए पवन। 

6

वैशाख आए 

छिपूँ कौन पट जा  

लाज लजाए। 

7

तनें बिरवे 

हो संयम हलाक 

रंगी पोशाक। 

8

ऋतु प्रबंध 

टूटी हैं संयम की 

सारी सौगंध। 

9

फूला पला

सिहरे मन प्रिय 

तू नहीं पास। 

10

कौन चितेरा 

है ऋतु ख़ुशरंग 

मीठे प्रसंग।

11

जगे सृष्टि के 

अर्ध निद्रित नैन 

सरका चैन।  

12

तेरे गीतों से 

लरजी बाँसुरी सी 

शिला।-सी देह।

13

उमड़ा प्यार 

पी के सत्कार बनी 

तोरणद्वार। 

14

घुला शाम के 

आँचल में दिन ज्यों 

बर्फ़ का ढेला। 

15

लिखें किरणें।

सलेटी संवादों को 

सूर्य ढलान।

16

रौनकें फ़ना 

टहनियाँ उदास 

चिड़िया कहाँ। 

17

लोभी लताएँ 

चाहें बिना रीढ़ के 

नभ छू आएँ।

18

सत्ता मिटाए 

करे खोखल पेड़ 

अमर बेल। 

19

गन्ने से ज़्यादा 

कौन जाने अंजाम 

मीठा होने का। 

20

लिखे व्याकुल  

मन की कथा-व्यथा

आकुल स्याही।  

 -0-

 

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | अप्रैल 28, 2023

2329

1-कमला निखुर्पा

कमला निखुर्पा

1

पूछे पहाड़

क्यों सूने हैं आँगन

बंद किवाड़ ?

2

नदी हैरान 

मैं तेरे आसपास 

फिर भी प्यास !

-0-

2-भीकम सिंह

bheekam singh

1

गोरा है आँधी 

शज़र शान्त खड़ा 

जैसे हो गांधी  ।

2

हवा में आई

गुंडई-सी रफ़्तार 

तोड़े हैं तार  ।

3

हवा दीवानी 

मेघ बरस गया 

वो तब जानी ।

4

आलस भरे

पुरवा दृग मींचे 

पेड़ों के नीचे  ।

5

रस्तों में धूल 

पछुवा ने उड़ाके

मारे ठहाके  ।

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | अप्रैल 16, 2023

2328-लहरों के मन की कहानी हाइकु की ज़ुबानी

समीक्षा

(लहरों के मन में-हाइकु संग्रह-सुदर्शन रत्नाकर)

समीक्षक – डॉ. पूर्वा शर्मा

लहरों के मन मेंहिन्दी हाइकु सृजन के इतिहास से गुजरने पर हम इस तथ्य से अवगत हुए बगैर नहीं रहते कि विगत डेढ़-दो दशकों में हिन्दी में हाइकु को लेकर सृजनात्मक विकास की गति में गुणात्मक वृद्धि हुई है। हिन्दी हाइकु के इस विकास दौर में पुरुष सर्जकों के साथ-साथ स्त्री सर्जकों की भी महती भूमिका रही है। सिर्फ़ हाइकु ही नहीं बल्कि ताँका, सेदोका, हाइबन जैसी जापानी विधाओं में सृजन कर हिन्दी साहित्य को और ज्यादा समृद्ध करने के साथ-साथ उसे नूतनता और वैविध्य प्रदान करने वाली हिन्दी की प्रमुख कवयित्रियों में सुदर्शन रत्नाकर जी का नाम शामिल है। हिन्दी की इस वरिष्ठ हाइकु कवयित्री के हाइकु संसार में ‘तिरते बादल’, ‘मन पंछी-सा’ इन दो संग्रहों के पश्चात् हाल ही में (2022) तृतीय संग्रह ‘लहरों के मन में’ प्रकाशित हुआ। 144 पृष्ठीय इस संग्रह में 1) प्रकृति के संग 2) रिश्तों के रूप एवं 3) विविध रंग शीर्षक से कुल 763 हाइकु संग्रहित है।

बगैर ज़ुबाँ के भी कितना कुछ कहती रहती है ये प्रकृति, बशर्ते मनुष्य में उसे सुनने-समझने की क्षमता होनी चाहिए। सागर की मचलती लहरों के मन में क्या है, वे क्या कहना चाहती हैं? बरखा की बूँदें कौन-से राग सुनाना चाहती हैं? ठंडी पुरवाई किसके किस्से-कहानियाँ कह रही है? सूर्य की गुलाबी किरणें धरा को चूमने को क्यों लालायित रहती है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं और इन सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए प्रकृति के करीब जाना आवश्यक है। एक ऐसी प्रकृति प्रेमी है – वरिष्ठ कवयित्री सुदर्शन रत्नाकर जी। उनके इसी प्रकृति प्रेम का परिणाम है उनका नवीनतम हाइकु संग्रह – ‘लहरों के मन में’। प्रकृति को पूरी तरह से समझ पाना संभव नहीं, लेकिन प्रकृति के मन की कुछ बातों को-कुछ रहस्यों को जानने-समझने का कवयित्री का प्रयास प्रस्तुत पुस्तक में बखूबी दिखाई देता है। इसमें प्राकृतिक सौन्दर्य, प्रकृति के विविध रूपों का बखूबी चित्रण हुआ है। कवयित्री के शब्दों में – “प्रकृति हमें बुलाती है, पुचकारती भी है। मैंने उसके पास जाने का प्रयास किया है। उससे मिलने वाले आनंद को अनुभूत किया है। बाल रवि को निहारा है, उसकी उगती किरणों ने बाँधा है मुझे। सागर की लहरों ने पुकारा है। चाँद की शीतलता को महसूस किया है। फूलों को निहारते हुए उसके विभिन्न अद्भुत रंगों ने मुझे अचरज में डाला है। फूल-पत्तों को छूते हुए लगा कि वे बतिया रहें हैं।” (‘कुछ अपनी बात’ से, पृ. 7)

प्रकृति को लेकर कवि एवं कविता की इस तरह की संवेदना की बात चले और सुमित्रानंदन पंत की विख्यात कविता ‘मौन-निमंत्रण’ का स्मरण न हो, यह संभव ही नहीं।   

पुस्तक का शीर्षक यह कहने में समर्थ है कि प्रकृति चित्रण ही संग्रह का प्रधान का स्वर है।

रवि ने झाँका

लहरों के मन में

उमड़ा प्यार।

सुदर्शन रत्नाकर प्रकृति से गपशप करते हुए कवयित्री का हृदय कह उठता है –

भीगी हवाएँ / चंचल वो लहरें / मुझे बुलाएँ। [44]

जल-कन्याएँ / सागर से हैं लातीं / भेंट में मोती। [47]

दूध कटोरा / हाथ लिये घूमती / रात चाँदनी। [30]

फाल्गुनी हवा हो या शीतल छाँव, हिम के फाहे हो या पिघली हुई बर्फ इन सभी की ओर कवयित्री की दृष्टि पड़ी है। कवयित्री का सूक्ष्म पर्यवेक्षण उनके हाइकु में नज़र आता है। कवयित्री का प्रेम महज़ सागर, लहरों आदि से ही नहीं है । कवयित्री कहीं पर चंपा-चमेली को श्वेत वस्त्र पहने देखती है तो कहीं फूल के शर्माने और कलियों-भँवरे के हँसने को अपने शब्दों में पिरोकर पाठक के मन-मस्तिष्क में सुंदर बिम्ब उभारने में सफल हुई हैं। मनभावन बिम्ब देखिए  –

डूबता सूर्य / नारंगी घुला रंग/ लजाया नभ। [74]

अक्स चाँद का / लिपटा है झील से / हुए हैं एक। [273]

एक ओर जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य में डूबकर कवयित्री का मन प्रसन्न हो उठा, वहीं दूसरी ओर कवयित्री हमारी संस्कृति को लेकर भी बहुत गर्व का अनुभव कर रही है। उनके अनुसार हमारी परम्पराएँ हमारी संस्कृति से हमें जोड़े रखती है  – 

मंत्रोच्चारण / गूँजे नदी किनारे / हैं धरोहर। [210]

हर स्थान पर ‘सु’ का ही अनुभव हो यह संभव नहीं। प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त इस धरा पर मनुष्य द्वारा बनाए समाज में ‘सु’ की तुलना में ‘कु’ का व्याप ज्यादा दिखाई देता है। कवयित्री ने अपने काव्य के माध्यम से समाज के अच्छे-बुरे दोनों रूपों को चित्रित किया है। कवयित्री कहती है – “जब मनुष्य समाज में रहता है; तो उसे अच्छी-बुरी बातों, विसंगतियों, विद्रूपताओं का भी सामना करता है। इसी को तो जीवन कहते हैं और जीवन है तो प्रकृति का आनंद है।” (पृ. 7) फुटपाथ पर सोने वाले बेघर लोग, बाढ़ से बेहाल लोग, गरीब, मजदूर एवं किसान के संघर्षमय जीवन के प्रति कवयित्री की पूरी सहानुभूति रही है। कवयित्री ने इनकी व्यथा-वेदना को काव्य के माध्यम से पाठक वर्ग के समक्ष रखा है।  

सेकता रहा / दिन भर रोटियाँ / फिर भी भूखा ।[703]

सामाजिक रिश्ते-नाते मनुष्य के जीवन में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। रिश्तों के विविध रूप माँ-पिता-भाई-बहन-बेटी-प्रेमी-प्रेमिका आदि को लेकर मनुष्य के मन में उपजे प्रेम एवं घृणा के भावों की अभिव्यक्ति रत्नाकर जी के हाइकु काव्य में मिलती है।

अजनबी से / रह रहे हैं लोग / ऊँचे मकान। [526]

नारी के विविध रूप एवं उसकी सामाजिक स्थिति,  वृद्ध जीवन, अकेलापन, जीवन दर्शन, प्रकृति का भीषण रूप, प्रकृति प्रदूषण, राजनीति, ग्राम्य जीवन का बदलता रूप सभी कुछ तो है इस संग्रह में। विविध संवेदनाओं से संदर्भित कुछ हाइकु इस प्रकार हैं –

दिखाता वह / देख रही दुनिया / खेल मदारी। [694]

धुआँसी आँखें / माँ परोसती रोटी / मिट्टी के चूल्हे। [522]

कीकली खेल / चरखे की घूमर / पीछे हैं छूटे। [517]

संग्रह के भाव पक्ष को आप देख ही चुके हैं, इसके साथ ही संग्रह का सौन्दर्य बढ़ाने में कला पक्ष भी उतना ही मजबूत नज़र आता है। काव्यशास्त्रीय दृष्टि से देखा जाए तो विभिन्न अलंकारों  के सहज प्रयोग काव्य के सौन्दर्य में चार चाँद लगाते हैं, यथा –

उत्प्रेक्षा  – तारों के गुच्छे / झूमर ज्यों लटके / नील नभ में। [39]

उपमा – बर्फ है जमी / अहल्या-सी हो गई / सर्दी में झील। [277]

रूपक  – ओस के मोती / कोहरे की चादर / गढ़े चितेरा। [106]

विरोधाभास  – बाँधती रही / जीवनभर घड़ी / बँधा न वक्त। [654]

चूँकि प्रकृति चित्रण इस संग्रह में भरपूर मात्रा में हुआ है तो प्रकृति के अनेक रूपों (आलंबन, उद्दीपन, उपदेशात्मक, रहस्यात्मक एवं नाम परिगणनात्मक आदि) का चित्रण करते अनेक हाइकु संग्रह की शोभा बढ़ा रहे हैं –

मानवीकरण – एकांतवास / है  शांत समाधिस्थ / पर्वत पुत्री। [275]

उद्दीपन – वर्षा की बूँदें / बालकनी में बैठ / भीगते मन।  [134]

सुंदर बिम्ब एवं प्रतीक के सटीक प्रयोग के अतिरिक्त कुछ अनूठे विशेषणों जैसे – भोर नवेली, नाजुक धूप, धुआँसी आँखें, खोखले नारे, सूनी गलियाँ, भीगते मन, समय चितेरा, निर्मोही बूँदें आदि भी संग्रह के शिल्प पक्ष को निखारने में सक्षम हैं।

विविध संवेदनाओं को आकर्षक शैल्पिक साँचे में प्रस्तुत करने वाली कवयित्री का प्रस्तुत संग्रह कथ्य एवं शिल्प के लिहाज़ से एक सुंदर और स्तरीय कलाकृति है। इस उम्दा सृजन के लिए सुदर्शन जी को अशेष बधाइयाँ एवं साधुवाद।

आ मिल बोएँ / दिल की धरा पर / बीज प्यार के। [662]

……………………………………………………………………………………

कृति : लहरों के मन में (हाइकु संग्रह), कवयित्री : सुदर्शन रत्नाकर, मूल्य : 360/-, पृष्ठ : 144, संस्करण : 2022, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्ली 

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | अप्रैल 16, 2023

2327

कपिल कुमार

1

तम का दाव

उषा ने ज्यों ही छुआ

चौपट हुआ। 

 2

जुगनू करें

मिलके रतजगा

तम है डरा। 

3

तम के घोड़े

आधे माह के लिए

चाँद ने मोड़े। 

4

जुगनू तोड़े

रात के कंधे चौड़े

दीपक लेके। 

5

रवि ज्यों डूबा

जुगनू की चाल से

तम भी ऊबा। 

6

जुगनू घूमें

रात ने पहने, ज्यों

असंख्य मूँगे। 

7

तम ज्यों हँसा

जुगनू के जाल में

रात में फँसा। 

8

जुगनू राही

इंडिकेटर जला

घूमने चला। 

9

मेह को भाप

गाँव मिल के देता

बिटोड़े ढाँप। 

10

मेघों के घोड़े

खेतों के सिर बैठ 

नख़रे तोड़े। 

11

खड़ा बिजूका

वर्षों से मौन साधे

प्यासा औ‘ भूखा। 

12

दो सूने तट

मिला दो, बनाकर

प्रेम का पुल। 

13

 

पेड़ों की दौड़

रेलगाड़ी चली, ज्यों

स्टेशन छोड़। 

14

ढहा न देना

भरोसे की दीवार

प्रेम-अपार। 

15

मेघों के गीत 

बेमौसम लगते 

बेसुरा राग।

16

वक़्त की चाल

सरपट दौड़ते

बेकाबू घोड़े। 

17

हवा की टोली

खेतों पे चला गई

अंधाधुंध गोली। 

18

कौन करेगा

खेतों की क्षतिपूर्ति

हवा घूरती। 

19

सूर्य पे भेजो

अग्निशामक दल

आग की वर्षा। 

20

गाँवों के स्वप्न

ए युग ने छीने

लुटाके धन। 

21

हाली का दर्द

अतिवृष्टि बढ़ाती

सिर पे कर्ज। 

22

खेतों को घूरे

मकड़जाल पूरे

हवा की टोली। 

23

गाँवों में बूढ़े

अखबार बाँचते

बिछा के मूढ़े। 

24

चित्र निहारे

अनपढ़ से गाँव

सुबह-शाम। 

25

प्राची ने फेंकी

उठा सूर्य की गेंद

सिंधु में गिरी। 

26

खूँटी पे टँगे

हलस और हत्थे

रस्सी से बँधे। 

27

मेघों में ऐंठ

हाली नभ ताकते

मेड़ों पे बैठ। 

28

शाम ढलते

ग्वाले धूल फाँकते

पीछे चलते। 

29

तम् निढाल

उषा ने खोले, ज्योंही

अपने बाल। 

30

छोटा-सा बीज

ई राह गढ़ता

ऊँचा बढ़ता। 

31

पूनो की रात

नभ खड़ा अकेला

तारे दुबके। 

32

चाँद पे गिरि

बुढ़िया बैठके, ज्यों

दूध बिलोती। 

33

धरा को छला

गिरि के हृदय पे

मशीनें चला। 

34

नभ में चाँद

ब्रह्मांड के ताख में

जलते दीप। 

35

खाली मटके

टाँड पे पड़े-पड़े

सारे चटके। 

 

36

वसंत ऋतु

नई नवेली बहु

सजके बैठी। 

37

जलती बाती

दुनिया में फैलती

दीप की ख्याति। 

38

कुआँ बेचारे

दीवार में दरारें

अतृप्त कंठ। 

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | अप्रैल 8, 2023

2326

1-कपिल कुमार

1

आँधी ज्यों आ

गेहूँ की बालियों में

छिड़ी लडाई।

2

खेतों को गयी

हवाएँ कटखनी

दे पटकनी।

3

आँधी ने दिया

देखकरके मौका

खेतों को धोखा।

4

श्रम के बीज

आँधियों ने उखाड़े

हाली अभागे।

5

फुर्र हो गई

पसलियाँ तोड़कर

खेतों की हवा।

6

गला दबाएँ

कटखनी हवाएँ

खेत अचेत।

7

कच्चे छप्पर

आँधी भरे खप्पर

नभ में उड़े।

-0-

2-सविता अग्रवाल ‘सवि’ कैनेडा

1

प्रातः की लाली

आषाढ़ी तपिश में

संध्या निराली।

2

नई नवेली

पहन लाल चुन्नी

पी-संग चली।

3

बिखरे रिश्ते

चुन रही मनके

असफल मैं।

4

याद तुम्हारी

गुनगुनी धूप– सी

लगती प्यारी।

5

शब्द अधूरे

भाव बहे संगीत

बजे ना यंत्र।

6

रंगीला पक्षी

अपनी ही धुन में

गा रहा गीत।

7

रिश्तों की बर्फ़

प्यार भरी गर्मी से

गई पिघल।

8

नादान हूँ मैं

गूढ़ तुम्हारी बातें

समझूँ कैसे?

9

खुशबू फैली

संग सहेलियाँ हैं

दुखों को भूली।

10

आलिंगन में

समुद्र की लहरें

झूलती झूला।

11

दर्द-चादर

थकी पैबंद लगा

बचा ना स्थान।

12

गमों की रातें

लम्बाई में अधिक

सूर्य– प्रतीक्षा।

13

त्योहार आया

बहना बुने राखी

भाई– कलाई।

14

चाँद ने देखा

शीश झील में मुख

चमका जल।

15

सखियों संग

मधुर गीत गाती

भुला ना पाती।

16

रेत की देह

नदी किनारे पर

सदा ही गीली।

-0-

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | अप्रैल 7, 2023

2325

1-तुम करीब – रश्मि विभा त्रिपाठी
7-RASHMI VIBHA TRIPATHI
1
यही मुराद
कि हमेशा आऊँ मैं
तुमको याद।
2
तेरे ही लिए
मन्नतों के ये धागे
पूजा के दिए।
3
तू गले लगा
जिन्दगी का अरमाँ
फिर से जगा!
4
दो जहान में
तुम्हीं ने दुआएँ दीं
मुझे दान में।
5
तुम करीब
दो जहाँ की दौलत
मुझे नसीब।
6
बुझी है प्यास
नदिया- से हो तुम
जो मेरे पास।
7
एक लहर
तुम नदी की, छू लूँ
तृप्त अधर।
8
तुम वो शख्स
जिसमें मुझे दिखा
मेरा ही अक्स!
9
हुई अधीर
तुम्हें गले लगाया
तो मिटी पीर।
10
तेरी महक
मेरी साँस- साँस में
अब तलक।
11
तुम संग हो
मेरा सादा जीवन
गाढ़ा रंग हो!
12
रात को जागूँ
टूटते तारे से मैं
तुमको माँगू।
13
नेह ने सींचा
हरियाया मन में
एक बगीचा।
14
दिन जो ढला
तुम्हारी याद आई
लेने बदला।
15
हाथ जो गहा
छुअन से उतरा
जो ताप सहा!
16
लगी जपने
जब तुम्हारा नाम
खिले सपने!
17
तुम्हीं भाँपते
दर्द की आँधी में जो
हम काँपते।
18
सँवार दिया
ये जीवन तुमने
यों प्यार दिया।
19
कहाँ, किधर
क्या देखूँ?, तुम्हीं पर
टिकी नज़र।
20
उठाके हाथ
सज़दे में माँगती
तुम्हारा साथ।
21
ताबीज जब
तेरी दुआ का बाँधा
डर क्या अब?
22
तुम्हारी दुआ
मेरा रक्षा कवच
मुझे क्या हुआ?
23
जिया विकल
तुम बिन आँखों में
छाए बादल!
24
तुम वाकई
बिछड़े तो आँखों में
घटा छा गई!
25
यही चाहत
तुम बाहें फैला दो
मिले राहत!
26
तुमसे आज
मिलके सिद्ध हुई
पूजा, नमाज।
27
मेरी आशा का
तुम हो आसमान
भरूँ उड़ान!
28
तुमसे रिश्ता
जुड़ा तो भर गया
घाव रिसता!
29
मेरी कहानी
सूखे- सी, बारिश का
तुम हो पानी!
30
तुम्हीं से होता
मेरा जी तृप्त, तुम
मीठा- सा सोता!

-0-

2-लोभ- रश्मि विभा त्रिपाठी


1
पैसों से ज्यादा
प्यारी नहीं किसी को
अब मर्यादा!
2
इन रिश्तों में
मिला दुख- दर्द ही
हमें किश्तों में!
3
कम, अधिक?
प्रेम हो गया अब
औपचारिक!
4
प्यार, जज़्बात
गुजरे जमाने की
हो गई बात!
5
बढ़ी उदासी!
प्यार के फूल सारे
हो गए बासी।
6
करें वो जो भी
सात खून माफ हैं
रिश्तों के तो भी!
7
बस हो चुका
भरोसा ही रिश्तों से
जब खो चुका!
8
छिड़ी है जंग
पैसों ने लगाई है
रिश्तों में जंग!
9
बढ़े फासले
कौन सी राह पर
ये रिश्ते चले?
10
हुआ बखेड़ा
रिश्तों की सीवन को
क्या है उधेड़ा?
11
अपनी गर्ज!
हाँ! हरेक को अब
यही है मर्ज।
12
जमाना कैसा!
सबके लिए ‘सब’
हो गया पैसा।
13
खरीदो प्यार
या बेचो, घर- घर
लगा बाजार!
14
रिश्तों का रूप
होता चला जा रहा
अब विद्रूप!
15
क्या खूब रीति
रिश्तों ने घर में की
फूट की नीति!
16
एक नासूर!
रिश्ते पीर, टीस से
हैं भरपूर!!
17
आग लगाते
और प्रेम का झण्डा
रिश्ते उठाते!
18
जन्म से जुड़े
जीवन भर कुढ़े
हमसे रिश्ते!
19
आदत बुरी
रिश्ते घोंप देते हैं
पीठ में छुरी!
20
रिश्ते हैं साँप
कोई नाम भी ले तो
जाती हूँ काँप!
21
रिश्तों की चोटी!
चढ़ो! देखो! दिखेगी
भावना खोटी!!
22
रिश्ते केवल
पिलाते हलाहल
क्यों पल- पल?
23
ये सारे रिश्ते
‘चाल’ की चक्की हुए
हम पिसते!
24
रिश्तों की मूर्ति
गौर से देखो तो है-
स्वार्थ की पूर्ति!
25
कहाँ है प्रीति?
केवल कूटनीति
भरी रिश्तों में!
26
ये जो उत्पात!
इसमें पूरा हाथ
रिश्तों का ही है!
27
बस लूट ही
सब रिश्तों का केंद्र
बनें राजेंद्र!
28
पाँव तो छूते
प्रेम- भाव से रिश्ते
पर अछूते!
29
दुख के पार
ले लेते अवतार
फिर से रिश्ते!
30
जिसको माना
वो निठुुर अहेरी
डालता दाना!
31
रहे सदा से
खून के बस प्यासे
खून के रिश्ते!
32
खून के नाते
खूब रीति निभाते
खून रुलाते!
33
बेच दी लाज
पैसों के मोहताज
सम्बन्ध आज!
34
जरा लो भाँप
जहरीले रिश्ते हैं-
दोमुँहे साँप।
35
न आए बाज
खून के रिश्ते की वो
लुटाते लाज!
36
अपनों ने भी
कहीं का नहीं छोड़ा
विश्वास तोड़ा!
37
किससे भला
आशा, अपनों ने ही
घोंटा है गला!
38
वाह रे प्यार?
पीठ- पीछे करते
अपने वार!
39
कैसा लगाव!
सबके जी में भरा
वैर का भाव!!
40
बड़ा लाड़ है!
ना! प्यार की आड़ में
खिलवाड़ है।

-0-

Posted by: हरदीप कौर संधु | मार्च 30, 2023

2324-वैश्विक हाइकु-संग्रह

निम्नलिखित लिंक को क्लिक करके हाइकु पढ़िएगा-

वैश्विक हिन्दी हाइकु विशेषांक-11_opt

Posted by: हरदीप कौर संधु | मार्च 29, 2023

2323

अनीता सैनी ‘दीप्ति’

1

अनीता सनी 'दीप्ति'शीतलहर

फटे पल्लू से मुख

निकाले शिशु।

2

संध्या- लालिमा

ग्वाले की बाँसुरी से

गूँजी गौशाला।

3

कुहासा भोर 

पिता संग खेत में 

खींचती हल।

4

रक्तिम साँझ

पगडंडी निहारे

बुजुर्ग माता।

5

वन में ठूँठ

बरगद के नीचे

लकड़हारा।

6

मेघ गर्जन

वृद्ध लिए हाथ में

फूँस- गट्ठर।

7

निर्जन गली 

जर्ज़र हवेली से 

पायल ध्वनि।

8

अर्द्ध यामिनी

जुगनू की आभा से

चमके धरा । 

9

रुदन स्वर

पति की फोटो पास

बैठी विधवा । 

10

ज्येष्ठ मध्याह्न

खेत मध्य ठूँठ पे

किशोरी शव।

11

कुहासा भोर

चूल्हा लीपे माटी से

रसोई में माँ।

12

शीतल नीर 

वृक्ष की छाँव तले

हिरण झुण्ड । 

13

चौथ का चाँद 

हाथ में पूजा थाल

नवल वधू । 

14

उत्तरायण 

माँझे में उलझें है

पक्षी के पंजे । 

15

रात्रि प्रहर

सूनी राह तकती

द्वार पे वृद्धा । 

16

मेघ गर्जन  

दीपक की लौ बीच

पतंगा शव । 

17

ठण्डी बयार 

अमिया डाल पर

झूलती गोरी । 

18

 संध्या लालिमा 

गाय झुण्ड में गूँजा

घंटी का स्वर । 

19

 संध्या लालिमा 

ग्वाले की गोद में

नन्हा बछड़ा ।

20

 पौष मध्याह्न

मंगौड़ा की सुगंध

पाकशाला से। 

21

सघन वन

लपटों के बीच में

कंगारू दल।

22

मिट्टी की गंध 

हल्की बरसात में 

छलके आँसू।

-0-

Posted by: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | मार्च 26, 2023

2322

कपिल कुमार

1.

दीपक की लौ

कीट पतंगों संग

खेलती खो-खो। 

2

तितली खेलें

छुआ-छुई का खेल

फूलों की गैल। 

3

मेंढ़क करे

रात में लम्बी कूद

ज्यों एथलीट।

4

चींटी करती

गेहूँ की जमाखोरी

चढ़ा के त्योरी। 

5

टिड्डी का पेट

करे मलियामेट

हाली के स्वप्न। 

6

खेत तंग, ज्यों

मेघों ने ओलेरूपी

गुलेल मारी। 

7

गेहूँ ज्यों पके

मेघों ने किसानों के

पाँव उखाड़े।

8

लू ने निकाले

तरकश से तीर

हाल-गंभीर।

9

पकीं फसलें

किसानों की परीक्षा

मेह से रक्षा। 

10

गाँव ज्यों बाँधें

आधुनिकता तोड़े

प्रेम के धागे। 

-0-

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