Posted by: हरदीप कौर संधु | नवम्बर 21, 2011
“मिले किनारे की पाठकीय यात्रा
मँजा हुआ कवित्व नई काव्य–शैलियों में


डॉ शैलजा सक्सेना(कनाडा)
“मिले किनारे” रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु’ और डॉ. हरदीप कौर सन्धु का ताँका और चौका संग्रह है। यह मेरी अज्ञता है, अनपढ़पन कह लें कि मैंने ताँका और चौका शैलियों के विषय में अभी पहली बार ही जाना और सुना है। अगर हिमांशु जी टोरोंटो न आते तो शायद इस विधा के विषय में मेरी अज्ञता कुछ समय और बनी रहती। हिमांशु जी ने हिन्दी राइटर्स गिल्ड की मासिक बैठक में दिये अपने व्याख्यान में चौका और ताँका के विषय में समझाया और उदाहरण दिये और स्थानीय लेखकों को प्रेरित किया कि वे इस विषय में सोचें। उनका काव्य की इन शैलियों के प्रति बहुत उत्साह है। हिन्दी कविता में इस शैली को लोकप्रिय बनाने के लिये वे कटिबद्द दिखते हैं। मैं उनके उत्साह से तो उत्साहित हुई पर विधा की तकनीकियों ने मुझॆ हतोत्साहित किया। इसके बाद हिमांशु जी ने यह संग्रह दिया कि पढ़ने के बाद मैं इस पर कुछ लिखूँ। यह मेरे लिए सम्मान की बात थी कि उन्होंने मुझॆ इस लायक समझा पर अभी भी विधा की अधिक जानकारी न होने से मन में संकोच है।
इस संग्रह को पढ़ने के बाद मैं यह कह सकती हूँ कि ताँका और चौका के विषय में मेरी अरुचि रुचि में ढल रही है। इस संग्रह को कौतूहल से पढ़ना शुरू किया, शुरू की कुछ कविताओं में अध्यापकीय दृष्टि से हर पंक्ति की मात्रा जाँचती रही फिर मुग्ध होना शुरू हुई कि इतने कम शब्दों में कैसे कवि ने अपनी बात सटीक और सुन्दर तरीके से लिख दी है और अंत तक आते–आते कायल हो गई मँजी हुई कविता ने नया परिधान पहना है।
यह रचना संग्रह दो कवियों की संयुक्त सृजनात्मकता का प्रस्तुतीकरण है। रचना संग्रह के प्रारंभ में कवियों ने इस शैली के विषय में लिखा है, जिससे इस शैली से अनभिज्ञ लोगों को इसके इतिहास और तकनीक के बारे में जानकारी मिलती है। इस संग्रह में पहले दोनों कवियों के ताँका हैं और फिर चौका। ताँका में एक शीर्षक देकर एक भाव के कई पद लिखे हैं। ये पद अपने में पूरे भी हैं और एक दूसरे से भाव–सम्बद्ध भी हैं। हिमांशु जी के दो ताँका की भाव–प्रवणता देखिये:
1.प्राण हो मेरे
न अब रोना कभी
आँसू तुम्हारे
हैं सागर पे भारी
घुमड़ते ये घन।
2. बहा जो नीर
कह गया था पीर
मैं था अधीर
बींध गया था मन
अधरों का कम्पन।
बिहारी के दोहों में जिस तरह भाव, अनुभाव, स्थायी और संचारी भाव निहित रहते थे, वैसे ही इन पदों में मन के भीतर और बाहर का सारा बिंब रूपकों के माध्यम से बहुत प्रभावपूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया है। ताँका में शब्द विस्तार के स्थान पर भाव विस्तार/गहनता चाहिए और वह भी पाँच या सात वर्णॊं में। पूरी पुस्तक में हमें हिमांशु जी के मर्मस्पर्शी, भावप्रवण ताँका देखने को मिलते हैं।
डॉ. हरदीप कौर सन्धु का ताँका देखिये:
“बादल छाये
चलीं तेज़ हवाएँ
बरसा पानी
भागी रे धूल रानी
यूँ घाघरा उठाये!”
तेज़ हवा में धूल का धरती से ऊपर उठना और गोल–गोल घूमना बहुत ही सामान्य है। हम सब ने यह दृश्य बहुत बार देखा हुआ है, पर इतने कम शब्दों में इस रूपक के साथ इस चित्र को प्रस्तुत करना एक मँजे हुए ताँकाकार का काम है।
ताँका की शैली के विषय में यही कहा जा सकता है कि इस शैली में वही सफल हो सकता है जो रचना के भाव की गहराई में पूरी तरह पैठ कर उसे पहले अनुभव करता है फिर उसे रूपक या बिंब के साथ एक आंतरिक लय में बाँध कर सटीक शब्दों में रचता है। इस प्रक्रिया में हिमांशु जी और संधु जी, दोनों ही सफल हुए हैं।
चौका में भाव के विस्तार के लिए अधिक स्थान होता है और लय उत्पन्न होने की संभावना भी अधिक दिखाई देती है पर यहाँ भी आंतरिक लय का होना आवश्यक है।
हिमांशु जी के चौका के विषय पुत्री–प्रेम से लेकर समाज और राजनीति सभी हैं। यूँ उनके सभी चौका उनके इस शैली में पारंगत होने का परिचय देते हैं पर “लगा पहरा”, “दर्पन हुआ निर्मल”, “परछाई की पीड़ा” बहुत ही सशक्त लगे, “लगा पहरा” की कुछ पंक्तियाँ देखिये:
“संवादों पर
अभिवादन पर
सन्देशों पर
गीले आँगन पर
तनी नुकीली
बंधन की संगीनें
वक्त ठहरा।“
यहाँ सारा दृश्य जैसे “फ्रीज़” हो गया हो। घर से बाहर तक का तनाव कम और सरल शब्दों में यहाँ जीवंत हो उठता है। ऐसे ही “परछाई की पीड़ा” में भाव को नये रूप में रखा है:
“नहीं बैठना
सटकर दो पल
जलन–भरी
मेरी परछाई से
दे देगी पीड़ा
दो पल की छुअन
जग जायेंगी
सोई सभी कथा…..”.
पीड़ा की अति का इससे सुन्दर वर्णन क्या हो सकता है कि परछाई से छू जाने पर भी पीड़ा जग सकती है।
सन्धु जी के चौका “अपना घर” और “पिता का रुतबा” बहुत सुन्दर हैं। “अपना घर” में नारी की पीड़ा और स्थिति की विडंबना देखिए:
“रब से उसे मिले
ये दो–दो घर
उसका अपना तो
कोई भी नहीं
कभी हुआ मगर”
ऐसे ही ‘पिता के रुतबे’ में पिता के वात्सल्य को भी माँ के वात्सल्य जैसी महत्ता प्रदान करवाने की बात की गई है। विषय नया है और एक स्त्री की कलम से निकल कर और भी निखर गया है।
हिमांशु जी के विषय घर–आँगन, प्रेम और समाज सभी ओर से लिये गये हैं। इन विषयों की प्रस्तुति बताती है कि हिमांशु जी की कविता की सान पर चढ़ी कविता है, जिसकी अपनी ही पहचान है। सन्धु जी की ताँका–चौका बहुत सुन्दर हैं और प्रकृति से लेकर नारी मन की बात बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं। इनकी रचनाओं में बसंत से लेकर जीवन के रेत जैसे हाथ से फिसलने की बात मिलती है।
यह संग्रह बताता है कि अच्छा कवि किसी भी शैली में सिद्धहस्त हो सकता है। ये दोनों ही कवि इन शैलियों पर अपना अधिकार रखते हैं ।एक बात पाठक और विद्यार्थियों के ध्यान रखने की है, वह यह कि ऐसी रचना को उद्धृत करने के समय विशेष ध्यान दें अन्यथा एक वर्ण की अधिकता या कमी रचना को सही या गलत कर सकती है। इस संग्रह के प्रकाशन के लिये दोनों कवि साधुवाद के पात्र हैं, जिनके कारण हिन्दी कविता प्रेमियों का इन शैलियों का परिचय मिला है और इन कविताओं से प्रभावित कवियों के कृतित्व को एक नया आयाम मिलेगा।
– डॉ. शैलजा सक्सेना (कनाडा )
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1-समीक्षायण में प्रकाशित किया गया
शैलजा जी, मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ । आदरणीय काम्बोज जी नए लोगों को भी जिस कटिबद्धता से इस विधा से जोड़ने की ओर अग्रसर हैं, वह निःसन्देह ही प्रशंसनीय है । काम्बोज जी और हरदीप जी को साधुवाद…।
By: प्रियंका गुप्ता on नवम्बर 21, 2011
at 11:09 अपराह्न
शैलजा जी ने बहुत ही खूबसूरती से अपने विचार रखे हैं|आदरणीय काम्बोज सर और हरदीप जी ने बहुत सारे लोगों को इस विधा से परिचय कराया,और इस पथ पे अभी भी अग्रसर हैं,यह बहुत सराहनीय है| काम्बोज सर और हरदीप जी को साधुवाद।
By: ऋता शेखर 'मधु' on नवम्बर 24, 2011
at 2:28 पूर्वाह्न
शैलजा जी आपकी प्रभावी लेखन शैली ने इस परिचय को अत्यन्त रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है. पुस्तक की यह एक झलक पाठकों के मन में ऐसी उत्सुकता जगाती है कि पुस्तक पढ़े बिना रहा नहीं जा सकता. हार्दिक आभार आपका !!
आदरणीय रामेश्वर जी एवं हरदीप जी के प्रयास, हिंदी में हाइकु, तांका, चोका आदि विधाओं में सुदृढ़ नींव की तरह हैं. इन्होने समय-समय पर इस विधा के नियमों का विस्तार से वर्णन करके इसके प्रति लेखन एवं पाठन की जो जागरूकता बढाई है वह प्रशंसनीय है.
सादर
मंजु
By: Manju Mishra on नवम्बर 24, 2011
at 5:40 पूर्वाह्न
शैलजा जी ने बहुत ही अच्छे ढंग से इस पुस्तक की समीक्षा की है इसमें कोई दो राय नहीं की काम्बोज़ जी इस क्षेत्र में बहुत सराहनीय काम कर रहें हैं। रात-दिन वे इसी प्रयास में रहते हैं कि किस तरह इन लुप्त होती विधाओं को लोगों तक पहुँचाएँ। उनका हर प्रयास सफल ही नहीं वरन चरम सीमा तक पहुँचता है।
काम्बोज जी और हरदीप जी का ये संग्रह इन विधाओं का जीता-जागता उदाहरण है।दोनों के ही ताँका और चौका अपने आप में मिसाल हैं इन दोंनो को हमारी ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ और यही दुआ प्रभु से कि ये विधाओं का परचम यूँ ही लहराते रहें पाठक खुद ब खुद खिंचते चले आयेंगे और फिर नये लोग लेखन में जुड़ते चले जायेंगे …फिर चलेगा काफ़िला सदियों तक…शैलजा जी को भी बहुत-बहुत बधाई …
By: bhawna on नवम्बर 24, 2011
at 10:21 पूर्वाह्न
भावना जी , मंजु जी ॠता जी और प्रियंका जी । यह जो भी कार्य हो रहा है या हुआ है , इसमें आप सबकी आत्मीय प्रेरणा का बड़ा हाथ है । हम सब ‘हिन्दी हाइकु’ को एक परिवार की तरह लेकर चले हैं ।सबकी उन्नति में ही हमारी सबकी उन्नति है । आप सबके उदार सहयोग के कारण हिन्दी हाइकु ने कई विषयों पर जो विशेषांक दिए है, वे एक -एक पुस्तक के बराबर हैं। आप सबकी रचनाएँ विश्व के किसी भी बड़े रचनाकर से कमतर नहीं हैं। आप सब अपना सहयोग, स्नेह इसी प्रकार बनाए रखिएगा ।
By: डॉ. हरदीप संधु on नवम्बर 24, 2011
at 1:49 अपराह्न
शैलजा जी, ने `मिले किनारे’ का बहुत ही सूक्ष्म और विस्तृत समीक्षा की है यद्यपि उन्होंने पहली बार इस विधा की पुस्तक पढी है लेकिन उनकी चिंतन,मनन और फिर लेखन की क्षमता बहुत उच्च स्तरीय है …वे बधाई की पात्र हैं |
हिमांशु जी और डा. हरप्रीत जी इस विधा के सशक्त एवं लोकप्रिय हस्ताक्षर हैं ….इन्होने न जाने कितने लोगो को हाइकुकार ,तान्काकार और चोकाकार बना दिया है | ऐसे बहुत कम लोग होते है हैं जो दूसरे को आगे बढाने में अपनी सफलता समझे और सुख की अनुभूति करें ..इन दोनों विभूतियों को मेरा शत-शत नमन |
डा. रमा द्विवेदी
By: ramadwivedi on नवम्बर 24, 2011
at 5:04 अपराह्न
शैलजा जी ,आप ने समीक्षा को भी रचना की तरह प्रस्तुत किया ,बहुत सुन्दर .काम्बोज जी इस कम जानी जाने वाली काव्य विधा तांका और चोका को लोक प्रिय बनाने का बड़ा काम अपनी साधना से कर रहे हैं .साधुवाद के पात्र हैं
By: suresh yadav on नवम्बर 25, 2011
at 2:03 पूर्वाह्न
शैलजा जी ,आप ने समीक्षा को भी रचना की तरह प्रस्तुत किया ,बहुत सुन्दर .कम्बोज जी इस कम जानी जाने वाली काव्य विधा तांका और चोका को लोक प्रिय बनाने का बड़ा काम अपनी साधना से कर रहे हैं .साधुवाद के पात्र हैं
By: suresh yadav on नवम्बर 25, 2011
at 2:05 पूर्वाह्न
aapne kya sunder varnan kiya hai aapkim lekhni ka jadu hai aur kya kahen
himanshi ji aur hardeep ji dono hi shbdon ke jadugar hai .uspr aapka likhna kamal huaa
rachana
By: rachana on नवम्बर 25, 2011
at 12:23 अपराह्न
Kamboj ji aur Hadeep ji is vidha mein paarangat hain. puri pustak padhi hun. bahut bhaavpurn taanka aur choka hai. lekhan ki is vidha ke prasaar aur utkrishtata ke liye sadaiv inhe katibaddh dekhi hun. aapki sameeksha padhkar achchha laga. dhanyawaad.
By: Dr.Jenny Shabnam on दिसम्बर 8, 2011
at 4:42 पूर्वाह्न